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पानीपत की तीसरी लड़ार्ड

भारत! धरती माता के गले का अमूल्य आभूषण, भारत ! यह भूमि ज्ञान की, धर्म की, वीरता की, सुजलाम्‌ सुफलाम्‌ सम्पन्नता की….

…इस सम्पन्नता ने अनेक वैभव-लोभियों एवं आक्रमणकारियों को यहाँ आने के लिए आकर्षित किया।

सन्‌ 712… मोहम्मद बिन कासिम आया। वह क्या आया कि संकटों का सिलसिला ही शुरू हुआ। निजाम, बरीद, इमाद्‌, कृतुब, आदिल, मुगूल यह सारी विदेशी हुकूमतें हिन्दुस्तान के सीने पर नाचने लगीं। क्या हुआ होगा यहाँ की संस्कृति का, पूजा-अर्चना का, यहाँ की अस्मिता का?

उसी समय अँधेरे को चीरते हुए एक तेजस्वी, प्रतापी नरसिंह प्रकट हुआ, वह थी – छत्रपति श्री शिवराय। 1674… रायगढ़ पर राजा शिवाजी सिंहासनाधीश्वर हिन्दू-पद्‌-पातशाह बने और समूचा हिन्दुस्तान खुशी से झूम उठा।

इसी हिन्दवी स्वराज्य को तहस-नहस करने के लिए मुगल बादशाह औरंगजेब पाँच लाख की सेना लेकर दक्षिण में उतरा, पर वीर मराठों ने 27 साल तक औरंगजेब के साथ जूझते हुए, उसे उसकी राक्षसी महत्त्वाकांक्षाओं के साथ महाराष्ट्र की भूमि में दफना दिया। इसके बाद छत्रपति पद पर विराजित हुए, शाहू महाराज। उन्होंने बड़े विश्वास के साथ बालाजी विश्वनाथ भट्ट को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया। बालाजी ने दिल्लीस के बादशाह पर मराठी हुकूमत की धाक जमाई।

मुगल बादशाह ने मराठों को चौथाई ‘सरदेशमुखी ‘ के अधिकार प्रदान किए। बालाजी की मृत्यु के पश्चात्‌ पेशवा पद पर विराजमान हुए उनके सुपुत्र बाजीराव। बाजीराव मतलब साक्षात्‌ तूफान, उसे कौन रोकता? अब पूरा उत्तरी हिन्दुस्तान मराठों के प्रभाव में आ गया। पुणे के शनिवार वाडा (महल) से दिल्लीत के तख्त को नियंत्रित किया जाने लगा। पूरे उत्तरी हिन्दुस्तान पर खुद का ग्रभुत्व रहे इसलिए बाजीराव ने कई सरदारों को वहाँ भेजा। इन्दौर में होलकर, ग्वालियर में शिंदे, बड़ौदा में गायकवाड, धार में पवार, बुंदेलखंड के प्रशासक गोविन्द पंत बुन्देले आदि-आदि। इस तरह के कई विश्वसनीय एवं श्रेष्ठ व्यक्तियों की वजह से उत्तरी हिन्दुस्तान में मराठों का जाल बुना गया।

बदकिस्मती से सन्‌ 740 में बाजीराव जैसा अजेय सेनानी नर्मदा के किनारे रावेर खेड़ी में वीरगति को प्राप्त हुआ। बाजीराव की मृत्यु से व्याकुल छत्रपति शाहू ने उनके सुपुत्र नाना साहेब की योग्यता ध्यान में रखते हुए, उन्हें प्रधानमंत्री पद से नवाजा।

अपने दादा और पिता की विरासत को आगे बढ़ाते हुए नाना साहेब ने हिन्दवी स्वराज्य की शोहरत में चार चाँद लगा दिए। पुणे के शनिवार वाडे की नगाड़े की गूँज से पूरा देश गूँज उठा।

सन्‌ 1752 में हुई सुलह से मुगल बादशाह ने दिल्ली की सुरक्षा की जिम्मेदारी मराठों को सौंप दी। कितना अद्भुत है यह संयोग? सौ साल पहले हिन्दू स्वराज्य को ध्वस्त करने की कामना रखनेवाला मुगुल राज, अब उन्हीं के सामने लाचार होकर, सुरक्षा के लिए हाथ फैला रहा था।

इसी दौरान भारत की राजनीति में एक नई विदेशी शक्ति का प्रवेश हुआ-अहमदशाह अब्दाली। यहाँ पर हो रहे सत्ता के संघर्ष में दखलअंदाजी करने के लिए इस अफगान बादशाह अब्दाली को घर के भेदियों ने आमंत्रित किया।

वैसे तो पहले एक बार अब्दाली, नादिर शाह के साथ दिल्लीं आया था। इसी वजह से उसे यहाँ की भौगोलिक व राजनीतिक जानकारी थी। आगे चलकर वह अफगानिस्तान का बादशाह बना। वह अपनी बड़ी सेना और कुशल युद्ध नेतृत्व के बल पर अफगानी लोगों का सर्वसत्ता अधिकारी बन गया। तबंसे उसकी नजर ऐश्वर्य-सम्पन्न हिन्दुस्तान पर थी। सन्‌ 747 के पहले आक्रमण के वक्तो वह पराजित हुआ लेकिन 752 व 756 में उसने फिर से आक्रमण किया। गोकुल वृंदावन, मथुरा के मन्दिरों का अत्यन्त क्रूरता से विध्वंस किया। दिल्ली को लूटते-खसोटते हुए लौट गया।

अब दिल्ली के रक्षक बने मराठों को अपनी ताकृत दिखाने पर मजबूर किया। इस वक्त राघोबा दादा ने मराठों का नेतृत्व किया। उन्होंने नर्मदा पार की, यमुना को पार किया और सिन्धु नदी को पार करते हुए अटक के पार तक झंडे गाड़ दिए।

मात्र दो सालों में 4760 में पेशवाओं ने उदगीर में निजाम को चारों खाने चित्त किया। बुरहानपुर, अहमदनगर, बीजापुर मराठों के कब्जे में आ गए। सैकड़ों साल पहले 294 में अलाउद्दीन खिलजी ने यादवों की राजधानी देवगिरि को नष्ट कर उसे दौलताबाद बना दिया। अब कम-से-कम 500 सालों बाद देवगिरि पर स्वतंत्रता की रोशनी जगमगा उठी।

अब मराठों को रोकनेवाली कोई भी ताकत बची नहीं थी। पेशावर से लेकर तंजावूर तक और वसई से लेकर कलकत्ता कोलकता) तक तीब्र घोड़ों को कोई नहीं रोक सकता था। अटक से लेकर कटक तक समूचे देश पर एक ही झंडा फहराने का शिवाजी का सपना साकार हो उठने की संतुष्टि प्राप्त हो रही थी। तभी दुर्भाग्य ने हमला बोल दिया। उदगीर की जीत का जश्न मनानेवाले नाना साहेब को उत्तर से आई भयावह खबर का पता चला।

भारत पर फिर से आक्रमण करनेवाले अहमदशाह अब्दाली ने उत्तरी हिन्दुस्तान में उधम मचाया। उसका इंतजाम करने के लिए शिंदे, होलकर लड्‌ रहे थे। ऐसे वक्त बुराड़ी घाटी के पास लड़ाई हुई और नजीब खान रोहिला का गुरु कुतुब शाह जिहाद का नारा देते हुए टूट पड़ा। वहाँ पर दत्ताजी शिंदे अभिमन्यु बन कर डटे हुए थे। घमासान युद्ध हुआ, दत्ताजी जुख्मी हालत में शत्रु के हाथ लग गए। उनका मजाक उड़ाने के लिए कृतुबशाह ने शैतानी हँसी में सवाल किया, “क्यों पाटिल ! अब लड़ोगे? ”” उस हालत में भी मौत से न डरते हुए दत्ताजी ने मराठी अभिमान के साथ कहा, “ बचेंगे तो और भी लडेंगे’”। क्रोधित हुए कुतुबशाह ने तलवार से दत्ताजी की गर्दन उड़ा दी। वीर दत्ताजी के इस करुण अंत से मराठी सैनिकों में गुस्से की लहर दौड़ गई और इस बेइज़्जुती का बदला लेना ही होगा, यह संकल्प ले लिया।

ऐसे समय, उत्तरी हिन्दुस्तान में किसे भेजा जाए? कौन जाएगा अब्दाली को काबू करने के लिए? और नाना साहेब ने चुना सदाशिवराव भाऊ। सदाशिवराव भाऊ – मतलब चमकती हुई तलवार! बडे भाई बाजीराव के छोटे भाई योद्धा चिमाजी अप्पा का पुत्र। नाना साहेब का चचेरा भाई ! उनके साथ था – हट्या-कट्टा नौजवान विश्वास राव। नाना साहेब का ज्येष्ठ पुत्र, भविष्य में होने वाला पेशवा । और मराठी सेना उत्तरी हिन्दुस्तान पर विजय प्राप्त करने निकल पड़ी।

14 मार्च 1760… सेना के साथ स्त्रियाँ, दास-दासी, साधु-संन्यासी, बेकार के लोग काफी संख्या में थे। इस वजह से वे बहुत धीमी रफ्तार से दिल्ली पहुँचे। सदाशिव भाऊ साहेब ने दिल्ली पर विजय प्राप्त की । मराठों की इस विजय से अब्दाली अंगारों पर लोटने लगा।

इस वक्ति अब्दाली, दोआब (गंगा और यमुना के बीच का प्रदेश) में था यह प्रदेश था। नजीबखान रोहिला का। नजीब, मतलब इस पूरे पानीपत कांड का असली खलनायक। इस धर्मान्ध भेडिये ने खुद के लिये दिल्लीे का वजीर पद हासिल किया। इस स्वार्थी मकसद से अब्दाली जैसे जहरीले साँप को घर ले आया था। दक्षिण के मराठों की दिल्लीे पर चल रही हुकूमत सहन न हो पाने से “काफिर हिन्दुओं की वजह से इस्लाम को खतरा’, इस तरह बतंगड़ बनाया।

हालात ऐसे बन गए थे कि अब भाऊ साहब दिल्ली में और अब्दाली दोआब में । बीच में बह रही थी – यमुना । भारी बाढ़ की वजह से उफान पर बहने वाली यमुना। युद्ध के लिए उतावली दो सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं, लेकिन यमुना के भारी बहाव के सामने किसी का कुछ भी बस नहीं चल रहा था। इस दरमियान अयोध्या का नबाब शुजाऊदौला (जिसके मन में मराठों के लिए हमदर्दी थी) पर दबाव डालकर अब्दाली ने अपनी तरफ कर लिया।

दिल्ली में बसे मराठों की नजुर अब गई कुंजपुरा की तरफ। हौंसले बुंलद हुए, मराठो ने कुंजपुरा जीत लिया । कुृतुबशाह के सिर को उड़ाकर दत्ताजी शिंदे की कर्रतापूर्ण मौत का बदला ले लिया। अब यमुना का पानी घटने तक क्या करें? यह सवाल सामने होते हुए भी कुछेक ने क्रुक्षेत्र में तीर्थ-स्नान करने के लिए जाने की योजना सामने रखी। रणभूमि पर लड़ने के लिए आये मराठे और उनके साथ आई हुईं सैकड़ों स्त्रियाँ, साधु-संन्यासी, बेकार में आए हुए लोग सारे-के-सारे कुरुक्षेत्र के तालाब में डुबकियाँ लगाकर, ईश्वर के दर्शन करने में मग्न थे । दूसरी तरफ, अब्दाली यमुना के किनारे दौड़ रहा था। सोच रहा था कि नदी कैसे पार करें? आखिर उसे सफलता मिली। नदी की ढलान मिली और …… और अब्दाली ने यमुना को पार कर लिया । यह भाऊ साहेब को लगा बहुत बड़ा धक्का था फिर भी उन्होंने तुरन्त सेना को एकत्र किया और पड़ाव के लिए सुरक्षित जगह ढूढ निकाली। वह गाँव था – पानीपत और दिन था – । नवम्बर 760 । दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं। भाऊ का दिल्ली जाने का रास्ता अब्दाली ने रोक रखा था और अब्दाली का काबुल जाने का रास्ता भाऊ ने रोक रखा था। शिकार पर झपटा मारने के लिए टोह लेनेवाले चीते की तरह दोनों ही एक-दूसरे का अंदाजा लगा रहे थे।

लेकिन, यह रणभूमि मराठों के लिए असुविधाजनक थी। नजीब और शुजा जैसे दोस्त साथ होने की वजह से अब्दाली को दाना-पानी और गोला-बारूद की कमी महसूस नहीं होनेवाली थी, लेकिन मराठों का क्या? उन्हें इस गैरप्रदेश में रसद कौन पहुँचाएगा? देखते-देखते एक महीना बीत गया। अब्दाली ने शिकंजा कसना शुरू किया। मराठों को अनाज, जानवरों का चारा न मिले, मदद के लिए भेजा गया पैसा उन तक न पहुँचे, इसलिए उसने पानीपत के चारों तरफ सशस्त्र दस्तों की व्यवस्था की।

दिसम्बर महीना आया । खून जमा देनेवाली उत्तरी हिन्दुस्तान की ठंड से सारे परेशान थे । जानवर चारा न मिलने से तड़॒प-तड॒पकर मर रहे थे। खाना न होने से सैनिक भी निष्प्राण हो चुके थे। भुखमरी से ऐसा वक्तक आया कि पेड़ों के पत्तों को तोड़कर खाना पड़ा। ऐसे में लाशों की वजह से फैली बदबू और उससे होने वाली बीमारियाँ। साथ में आए बड़े भारी कबीले, पेशवाओं और सरदारों की खानदानी स्त्रियों, बिना काम के आए 1,50,000 लोगों, साधु-संन्यासियों, हाथी-घोड़ों, बैल और ऊँटों की जान कैसे बचाएँ ? यह सवाल भाऊ के सामने था। आखिरकार 1761 का जनवरी महीना शुरू हुआ । दक्षिण से कोई मदद मिलेगी, यह उम्मीद नाना साहेब को थी। दिल्ली से गोबिंदपंत बुंदेले आर्थिक मदद करेंगे। ऐसा लग रहा
था, पर अब्दाली के लोगों ने उनके भेजे हुए पैसों को लूट लिया । और तो और गोबिंदपंत को मारकर उनका सिर भाऊ साहेब को भेज दिया।

चारों तरफ से संकट घेर रहे थे । ऐसे आघातों से डगमगा जाएँ, भाऊ साहेब ऐसे कहाँ! अभी भी दृढ़ निश्चय के साथ सतर्क होकर चौकन्ना रहते हुए वे चढ़ाई करने की योजना बना रहे थे। 3 जनवरी का सूरज निकल आया । ढाई महीनों से चल रही भुखमरी अब असहनीय हो चुकी थी। मरना ही है तो रणभूमि पर दुश्मन से लड़ते हुए मरेंगे, भूख से तड़प-तड॒पकर नहीं। भाऊ साहेब को लगा कि अब इस समस्या को सुलझाना ही होगा। अगर अब्दाली की सेना को ढहाकर साथ में लाईं हुई सभी स्त्रियों को एक बार दिल्ली पहुँचा दिया जाए तो यह संकट टल जाएगा । पर यह होगा कैसे?

बुजुर्गों में विचार-विमर्श शुरू हुआ । इसमें एक था इब्राहिम खान गारदी, मराठी तोपखानों का प्रमुख और पाश्चात्य युद्ध-नीति का जानकार। धर्म से मुसलमान पर हिन्दू स्वराज्य का वफ़ादार सेवक । उसके द्वारा रखा गया प्रस्ताव सभी ने स्वीकार किया।

योजना यह निश्चित हुई की दिल्लीय की तरफ जाने वाले राजमार्ग पर अब्दाली का पड़ाव है तो दक्षिण दिशा से नहीं जा सकते | इसलिए पूर्व दिशा की ओर जाएँ और यमुना के किनारे होकर दिल्ली पहुँचें । हम निकल चुके हैं, यह जानकर अब्दाली जृरूर हमला करेगा । ऐन वक्त पर लड़कर, घेरे को तोड़कर जैसे-तैसे भी हो दिल्ली पहुँचें ।

निर्णय पक्का हुआ । मंत्रणा समांप्त कर सभी सरदारों ने रात में सेना को अपने-अपने काम समझा दिए ।

दूसरे दिन 4 जनवरी, 76 को मुँह अँधेरे ही मराठों की सेना तैयार हो गई। इब्राहिम के कहे अनुसार उन्होंने सेना की रचना की । सबसे आगे था इब्नाहिम खान गारदी का तोपखाना । उसके पीछे विट्ठल शिवदेव और दमाजी गायकवाड की टुकड्याँ | उनके पीछे, सबसे पहले हमला करने वाली हुजुरात की टुकड़ी, अर्थात्‌ सरसेनापति भाऊ सदाशिव पेशवा और विश्वासराव पेशवां | इनके बाद शिंदे और होलकर की टुकड़ियाँ चलनेवाली थीं । अन्दर की तरफ थे राजघराने की स्त्रियाँ, दास-दासी, साधु-संन्यासी और बिना किसी काम के आए लोग। इन सबको बीच में रखते हुए और इनकी सुरक्षा को देखते हुए आगे बढ़ना था |

मराठी सेना मुँह अँधेरे निकल पड़ी, फिर भी खबर फैल गई । अब्दाली तक खबर पहुँच गई । मराठे कभी-न-कभी घेरे को तोड़ने कोशिश करेंगे, इस बात का अंदाजा उसे था । उसने तुरंत हुक्म दिए । मराठे कौन-सी दिशा से आएँगे? इस बात कां अंदाजा उसे भी नहीं था । उसने चाँद की रेखा के आकार में सेना की रचना की थी । पूर्व में बरखुदार खान और अमीर बेग। उनके साथ-रोहिले की सेना भी रखी गई। बीच में उसका वफादार वजीर शाहवली खान। उसके बाद शुजाऊदौला और फिर उसके बाद जो इस युद्ध के लिए जिम्मेदार था वह यानी नजीब खान। दिल्ली का महामार्ग रोकने के लिए शाहपसंद खान। खुद अब्दाली अपनी सेना के पीछे डेढ़ किलोमीटर पर -एक ऊँचे टीले पर खड़ा रहकर अपनी दूरबीन से रणभूमि पर नजर रखनेवाला था। उसकी साठ हजार की फौज 10 किलोमीटर तक फैली थी। उसके सैकड़ों सैनिक रणभूमि पर घटनेवाली हर घटना का ब्योरा समय-समय पर उसके पास पहुँचा रहे थे। सुबह के 10 बज चुके थे। युद्ध के नगाड़े बजने लगे थे। दो विशालकाय सेना-सागर पल-पल नजृदीक आने
लगे। आसमान से इतिहास पुरुष भी हैरान होकर देख रहा होगा कि आगे क्या होगा?>/p>

मराठी सेना के बीच में केसरिया जुरी पटका लहरा रहा था। गजेन्द्र हाथी पर सवार होकर भाऊ साहेब सेना में आवेश भर रहे थे। यमुना के दह में घुसे हारे हुए कालिया को बाहर निकालने के लिए कृष्ण तैयार हो चुका था।

पूर्व की ओर इब्राहिम के दस्ते के सामने रोहिले की टुकड़ी मुकाबला करने के लिए तैयार थी। इब्राहिम ने तोपची को इशारा किया। बातियाँ सर-सर करते हुए जल उठी। महाकाली तोप का अंगार उगलता हुआ गोला शत्रु सेना पर जा गिरा। रोहिलों के मुर्दे हवा में उछलने लगे। युद्ध की चिंगारी सुलगी। दुनिया के इतिहास का एक महासंग्राम आरम्भ हुआ। चारों ओर से हो-हल्ला मच गया।

इब्नाहिम का तोपखाना अंगारे उगल रहा था। अफगानी आक्रमण की धज्जियाँ उड़ रही थीं। टूटे हुए हाथ-पाँव और सिरों के ढेर बन रहे थे। मराठी तोपों से उगले हुए ज्वालामुखी के सामने शत्रु की सेना तितर-बितर हो गई। रोहिले जान बचाकर भागने लगे। निशाने पर हुए हमले की सफलता देखकर इल्नाहिम को खुशी आसमान छूने लगी। तभी कोलाहल सुनाई देने से उसने पीछे मुडकर देखा और वह काँप उठा। उसके पीछे खड़ी दमाजी गायकवाड और विट्ठल-शिव देव की टुकडियाँ गोल की रचना तोड़कर आगे निकल पड़ी थी। भागने वाले रोहिलों का पीछा कर उन्हें मार डालें, यह सोचकर वे रणभूमि में घुस गईं। इब्राहिम जी-जान से आक्रोश करते हुए उन्हें रोकने की कोशिश कर रहा था, पर उसकी कौन सुनेगा?

तोपखानों के सामने मराठों के आ जाने से इब्राहिम को मजबूरन तोपों को दागना बन्द करना पड़ा। मराठी तोपों से आग उगलना क्यों बंद हुआ यह देखने के लिए रोहिले पीछे मुडे तो उन्होंने देखा कि हजारों की तादाद में मराठे उसी ओर आ रहे थे। मराठों के हाथों में थी तलवारें और रोहिलों के पास बन्दूकें। अब रोहिले मराठों को बन्दूकों से उड़ाने लगे। अनुशासनहीनता ने अपना असर दिखाया। सारी कोशिशें बेकार गईं। अब रोहिले लड़ते हुए इब्राहिम गारदी की सेना से भिड़ गए। तोपखाने के रहते हुए भी मराठे उसका प्रयोग नहीं कर सके। 5 हजार में से बचे हुए डेढू-दो सौ वीर जमकर लड़ रहे थे। इब्राहिम की मेहनत और योजना मिट्टी में मिल गई थी। हाथ में आया जीत का मौका छूट चला था। आखिरकार इब्राहिम को लोहे की जुंजीर में रोहिलों ने कैद किया।

अब्दाली की सेना चंद्ररेखा से आगे बढ़ रही थी, जैसे मृत्यु ने दोनों हाथ ‘फैलाए हुए हों। यह जेहादी चाँद केसरिया सूरज को निगलना चाहता था। अब वजीर शाह वली खान की सेना श्रीमंत पेशवा की सेना से भिड़ गई थी।

ढाई महीने भुखमरी से थके मराठे एक ही ठोकर में गिर जाएँगे, इस गुलतफहमी में वे थे । उसके ऊपर मराठों की संख्या थी तो सवा लाख पर उसमें से लड़नेवाले थे सिर्फ पचास हजार । संख्या कम थी, पर देश और धर्म के लिए लड़ने की जिद थी । शक्ति कम थी, पर दिल में जोश था । पेट में भूख थी, पर कलेजे में आग थी।

सामने से तूफान की तरह शत्रु सेना के आते ही विश्वासराव हाथी से उतरकर घोड़े पर सवार हो गए । तलवार उठाकर उद्घोष करने लगे । यह देखते ही मराठे जोश में आए । दो सेनाएँ एक-दूसरे से टकरा रही थीं । नगांडे, तुरही, डफली, भोंपू – इन रणवाद्यों की गूँज आसमान से टकरा रही थीं । हरे परचम पर केसरिया ध्वज टूट पड़ रहा था । अल्लाह हो अकबर’ की पुकारों को ‘हर हर महांदेव’ का जवाब मिल रहा था । कई सालों पहले सहयाद्वि के मस्तक पर शिवकत्रपति द्वारा जलाई हुई चिंगारी पानीपत के मैदान पर धधक रही थी ।

मराठों के धमाके से शाहवली खान की सेना की दुर्गत हो गई । बची हुई मुट्ठीभर सेना को देखकर वजीर शाहवली खान रणभूमि पंर ही परवरदिगार की याचना करने लगा।

इस दर्दनाक हालात की खबर अब्दाली तक पहुँच गई । उसकी आँखों के सामने दिन में तारे चमक उठे । अब पराजय पक्की ही है । उसने अपने कबीले को दिल्लीद तक पहुँचाने का हुक्म दिया, पर वह अपनी हिम्मत नहीं हारा था । उसके पास दो हजार आरक्षित सेना थी । उसे रणभूमि पर जाने का हुक्म उसने दिया।

युदूध शुरू हुए चार घंटे बीत चुके थे | खाने-पीने के बगैर मराठे थक चुके थे । तभी फुर्तीली नई अफगान सेना आँधी की तरह टूट पड़ी । यह मार भयावह थी । भारी मारकाट शुरू हुई । खुद सदाशिव भाऊ घोड़े पर सवार होकर सैनिकों में जोश भर रहे थे । पर बदकिस्मती आड़े आई । शत्रु सेना में से एक अस्त्र विश्वासराव के मस्तक पर आ गिरा । खून का फव्वारा फूट पड़ा । तलवार नीचे गिर पड़ी । विश्वासराव रणभूमि पर गिर पड़े । पेशवाओं का वारिस और सैनिकों का प्यारा सेनापति वीरगति को प्राप्त हुआ । सिर्फ उन्नी सवें साल में भरी जवानी में मौत ने उस पर झपटूटा मारा।

यह जानलेवा खुबर भाऊ तक पहुँच गई । उनके पैरों तले की जमीन खिसक गई । “नाना साहब ने बडी जिम्मेदारी के साथ विश्वासराव को मेरे हाथों में सौंप दिया था । अब कौन-सा मुँह लेकर मैं पुणे जाऊँगा ? नाना को क्याज जवाब दूँगा?!” भाऊ ने विश्वास की मृतदेह पुणे की ओर भेज दी। अब वे वीरभद्र के आवेश में रणभूमि में तांडब करने लगे । गले से खून निकलने तक मारो-काटो की गूँज उठने लगी । मानो साक्षात्‌ प्रलय भैरव ही अवतरित हुए हों । मराठी मिट्टी से सैकड़ों कोस दूर, शिवराय के सपने के लिए, केसरिए ध्वज की इज़्जुत की खातिर, मिट्टी की लाज रखने हेतु यह रणमस्त योद्धा पैर जमाकर खड़ा था। प्राणों की बाजी लगाकर संघर्ष कर रहा था |

पीछे रहे बेकार में आए लोगों में राव के गिर पड़ने की खबर पहुँचते ही घबराहट फैल गई । साधु-संन्यासी, बैरागी भागने लगे । उनके कबीले दहाड़ मारकर रोने लगे । सरदार होलकर, शिंदे के दस्ते भी जहाँ से भी हो सका दक्षिण की ओर भागने लगे । उफनते सागर में उठनेवाली लहरों को झेलते हुए जलदुर्ग जिस प्रकार डटकर खड़ा रहता है, उसी प्रकार जनकोजी शिंदे शत्रु से अब तक जूझ रहा था । आखिर शत्रु ने उसे भी कैद कर लिया।

मराठों के सवा लाख लोग बिखर चुके थे । सदाशिव भाऊ खून से लथपथ हो कर अपने पराक्रम की हद पर उतर आए थे । उनका एक-एक साथी धरती पर गिर रहा था ।

इतने में गुस्सा हुई अफगानी सेना ने लड़ने के लिए बंदूकधारियों को उतारा और भाऊ पर गोलियाँ दागना शुरू हुआ । पूरा शरीर छलनी हो उठा । महाराष्ट्र की अमूल्य संपत्ति मिट्टी में मिल चुकी थी ।

युदूध खत्म हुआ । मराठों की बुरी तरह से हार हुई | रणभूमि पर खून का कीचड़ फैल गया था । लाखों लोगों का कत्ल हुआ । मराठी जवानों का शौर्य पानीपत में जलकर खाक हुआ । महाराष्ट्र के लाखों घरों की सुहागिनों का कुमकुम यमुना के किनारे बिखर गया ।

अब उस रणभूमि पर मुद्दों की भीड़ में खड़ा था एक आम्रवृक्ष ! खून की नदियाँ बहने से उसका रंग काला पड़ गया, इसलिंए उसका नाम पड़ा- “काला आम ‘ । भारतीय इतिहास के एक बड़े संघर्ष का गवाह !

पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय की खबरें दक्खन तक पहुँच गई थी। पुणे में भूचाल-सा आया । शनिवारवाडा हिल उठा । श्रीमंत नानासाहब पेशवा तक खबर पहुँची – पानीपत में दो मोती खो गए; सत्ताईस मुहरें गायब हुईं; सवा लाख चूड़ियाँ टूटी । विश्वास और भाऊ के विरह में नानासाहब पागल हो उठे । ‘भाऊ ! भाऊ !!’ का आक्रोश करते हुए उन्होंने पर्वती पर प्राण त्याग दिए | जैसे आसमान फट गया हो ।

इस युद्ध में हार तो गए, पर खत्म नहीं हुए । अब्दाली जीत भी गया तो उसकी सेना का जो नुकसान हुआ, उसे देखते हुए यह जीत उसे महँगी पड़ी। उसने नजीब को दूर रखते हुए मराठों के नियुक्त किए बादशाह और वजीर दिल्लीज पर कायम रखे । “दिल्ली के रक्षक ‘ यह मराठों की जिम्मेदारी बैसी ही रखी गई ।

और पानीपत की राख से मराठे फिर उठे । बड़े भाई माधवराव पेशवा के नेतृत्व में फिर से उत्तर हिंदुस्तान पर आक्रमण करने लगे । सिर्फ पच्चीस सालों के बाद पानीपत का वीर महादजी शिंदे जब मराठों का सरसेनापति बना तो निरंतर तेरह सालों तक दिल्लीश पर केसरिया लहराता रहा । जिस अफगानिस्तान से भारत पर हजारों साल आक्रमण होता रहा, पानीपत युद्ध के बाद वहाँ से आने तक की किसी की हिम्मत न हुई ।

14 जनवरी 1761 !

दुनिया के इतिहास की एक भयावह घटना !

मराठे हारे, फिर भी वे आखिरी साँस तक लड़े । कुछ गूलतियों की वजह से पराजय हुई, फिर भी देश की रक्षा हेतु “मराठी माणूस” (भारतीय जवान) किस तरह से जूझता है, यह सारी दुनिया ने देखा ।

इसीलिए, पानीपत पराजय की कहानी नहीं । वह कहानी है – मराठों के अनुपम थैर्य की, शौर्य की, बेजोडु जिद की, अलौकिक त्याग की और उत्कृष्ट राष्ट्रभक्ति की ।

पानीपत के इन मराठा वीरों को हम सब का शतू-शत्‌ नमन !

-मोहन शेटे, पुणे