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पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम की हार के कारणों का पुनरावलोकन

जब भी पानीपत की पहली लड़ाई की बात होती है तो प्राय: बाबर की रोगों में तैमूर एबम्‌ चंगेजुखान के रक्त का जिक्र होता है, अर्थात्‌ उसे एक परम्परागत विजेता के रूप में दिखाया जाता है । तोपों का समुचित उपयोग, बैलगाड़ियों से बनी रक्षा पंक्ति तथा बाबर द्वारा अपनाई गई तुलगुमा (घुमाव सेना) प्रणाली इस युद्ध के विवरण को पूरा कर देते हैं।’ परन्तु क्या यही पूरा सच है, इस बात को जानने की गहन आवश्यकता है।

अक्सर इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि बाबर का मध्य-एशियाई संघर्ष उसकी सफलता का नहीं अपितु बारबार पराजयों का इतिहास है। 497 में और फिर 50-502 में उसने समरकंद पर अधिकार किया पर वहां टिक नहीं पाया। 502 में उसने समरकंद पर अधिकार किया पर वहां टिक नहीं पाया। 1502 में तो यह अपना पैतृक प्रदेश फरगाना भी खो बैठा। घोर निराशा से वह अपने मामा के राज्य ताशकंद में चला गया। हि० 908 .(7 जुलाई 502 से 6 जून 503 ई.) के अपने विवरण में बाबर लिखता है-

मुझे अपने ताशकीन्त – निवास के समय अत्यधिक दरिद्रता एवं अपमान का सामना करना पड़ा । मेरे अधीन न तो कोई राज्य था और न किसी राज्य के मिलने की कोई आशा थी। मेरे अधिकांश सेवक छिन्न-भिन्‍न हो गए। जो रह गए वह भी मेरे साथ दरिद्रता के कारण कहीं न जा सकते थे। जब मैं अपने खान दादा (मामा) के द्वार पर जाता तो कभी मेरे साथ एक आदमी और कभी दो आदमी होते थे। खान दादा के प्रति अभिवादन करके मैं शाह बेगम (खान की प्रमुख बेगम) की सेवा में उपस्थित होता था। अपने घर के समान वहां नंगे सिर तथा नंगे पांव चला जाता था। मैंने सोचा कि इस जीवन से यह कहीं अच्छा है कि जहाँ कहीं सींग समाये मैं निकल जाऊँ और लोगों के बीच में इतने अपमान और दरिद्रता का जीवन न व्यतीत करूँ।

बाबर ने इस बात का सविस्तार उल्लेख किया है कि अक्शी के क्षेत्र में, जो कभी उसके राज्य का अंग था, उसे कैसे तम्बल के सैनिकों के सामने बार-बार भागना पड़ा यद्यपि ये एक अवसर पर केवल 20-25 और दूसरे पर 00 के करीब थे।

अक्तूबर 1504 में “बिना युद्ध और बिना प्रयास” बाबर ने काबुल पर अधिकार जमा लिया जो कि उस समय अंतकर्लह का शिकार था। उसने कन्धार पर भी अधिकार कर लिया, पर केवल कुछ ही सप्ताह के लिए। 5] में ईरान के शासक शाह इस्माईल सफवी की सहायता से बाबर ने समरकंद पर एक बार पुनः अधिकार कर लिया। बुखारा और खुरासान पर भी उसका अधिकार हो गया। शाह की सहायता की शर्त के अनुरूप बाबर ने न केवल शाह का आधिपत्य स्वीकार किया अपितु उसे शिया भी बनना पड़ा। ठीक जैसे कि बाद में उसके बेटे हुमायूं को भारत से भाग कर ईरान में शरण लेने के दौरान करना पड़ा था। केवल इतना ही नहीं ईरान का शाह बाद के मुगल सम्रारों के काल में भी उन पर अपने आधिपत्य का दावा करता रहा। परन्तु इतना सब करने पर भी बाबर समरकंद में टिक नहीं पाया और मई 52 में उबैदउला खां से बुरी तरह परास्त होकर उसे अपना मध्य एशिया का स्वप्न सदां-सर्वदा के लिए छोड़ना पड़ा। इन हालात ने बाबर को भारत के बारे में सोचने पर मजबूर किया।

अब दृष्टिपात करें, पंजाब से बिहार तक फैली देहली सल्तनत पर। यहाँ इब्राहिम लोधी का राज्य था जो 57 में सुल्तान बना था। जिदूदी स्वभाव का “सुल्तान अपने ही सरदारों के प्रति शंकित था। निकट समकालीन लेखक निमाताल्‍ला के अनुसार राजकुमार जलाल एवम्‌ लगभग 23 सर्वश्रेष्ठ सामान्तों को विद्रोह अथवा केवल संदेह के कारण मार डाला गया। महत्त्वाकांक्षी आलम खां देहली से भाग निकला। पंजाब का सूबेदार दौलत खां ऐसे व्यवहार करने लगा जैसे बह कोई स्वतंत्र शासक हो। उसका बेटा दिलावर खां जो राजदरबार में बन्धक के रूप में था, भागने में सफल हो गया। दौलत खां ने दिलावर को बाबर के पास भेज कर उसे भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। आलम खां भी बाबर से जा मिला एवम्‌ देहली पर अधिकार दिलाने के बदले पंजाब, बाबर को देने का वचन दिया। इब्राहिम ने सेना भेज कर पंजाब पर अधिकार कर लिया।

इन परिस्थितियों में बाबर एक बार पुनः भारत की ओर अग्रसर हुआ। उसने पंजाब पर अधिकार कर इसे दौलत खां और आलम खां में बांट दिया। बाद में दिलावर खां को भी एक भाग दे दिया गया क्योंकि उसने अपने पिता के गुप्त इरादों की जानकारी बाबर को दी। बाबर के काबुल लौटने के शीघ्र बाद आलम खां ने उसे देहली पर अधिकार करने का प्रयास किया। उसने 30-40 हजार सैनिक एकत्रित कर लिए। उसकी योजना देहली पर रात के समय आक्रमण करने की थी ताकि वहां मौजूद रुष्ट सरदार अंधेरे का लाभ उठाकर बिना संकोच दल-बदल सके। इब्राहिम इस संभावना से बेखबर नहीं था। वह प्रकाश होने तक अपने खेमे में रुका रहा और दिन निकलते ही आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया।

आलम खां का अभियान भले ही असफल रहा परन्तु इससे यह तो सुस्पष्ट हो गया कि सुलतान अपने सरदारों के प्रति पूर्ण आश्वस्त नहीं था, विशेषकर यदि युद्ध रात में लड़ा जाए। इब्राहिम की यह विवशता कितनी घातक सिद्ध हुई, यह सत्य पानीपत के युद्ध में सामने आया।

बाबर यमुना नदी के साथ-साथ चलता हुआ 12 अप्रैल 1526 को पानीपत पहुंचा। उसे पूरी आशंका थी कि इब्राहिम तुरंत उस पर हमला करेगा ताकि बाबर की थकी हुई सेना को हरा सके, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। सम्भवत: इब्राहिम अपनी योजना के विषय में पूर्णतः आश्वस्त था और उसका लक्ष्य बाबर को उसके देश से दूर हिन्दुस्तान की गर्मी में रोककर रखने का था। साथ ही शत्रु की रसद रोककर, कुछ वैसे ही हालात पैदा करना चाहता था; जैसे 1761 में मराठा सेना के साथ हुए।

सम्भवत: इसलिए बाबर द्वारा आगामी सात दिनों तक उकसाये जाने पर भी इब्राहिम आगे नहीं बढ़ा। बाबर परेशान हो गया। वह लिखता है कि उसकी सेना में घबराहट फैलनी शरू हो गई। इस परिस्थिति में अपने “हिन्दुस्तानी खैरख्वाओं” की सलाह पर उसने 8-9 अप्रैल की रात में 4-5 हजार सैनिकों का एक दल इब्राहिम के खेमे पर आक्रमण करने के लिए भेजा। “यह अभियान अपने लक्ष्य में सफल नहीं हुआ ‘, परन्तु इसने सुलतान को अपनी सोची-समझी राजनीति बदलने पर विवश कर दिया। अगले ही दिन उसने बाबर की व्यूहबद्ध सेना पर आक्रमण का आदेश दे दिया – वही जो बाबर चाहता था।

यदि इब्राहिम को अपने सभी सरदारों की वफ़ादारी पर भरोसा होता तो वह अपनी रणनीति पर कायम रह कर बाबर की सेना को पहले आक्रमण करने अथवा वापस लौटने पर विवश कर सकता था। दोनों ही परिस्थितियों में बाबर को भारी नुकसान होता। स्पष्टत: बाबर के तोपखाने और तुलुगमा दल से कहीं अधिक अफगानों के आन्तरिक मतभेद ने युद्ध की परिस्थितियों एबम्‌ परिणाम को प्रभावित किया।

आलम खां, जिसने अपने ही लोगों के विरुद्ध बाबर का साथ दिया था, इस युद्ध के बाद उपेक्षित और अपमानित जीवन जीने पर विवश हुआ। बाबर कां सबसे वफादार अफगान सहयोगी दिलावर खां मुगलों के विरुद्ध शेरशाह के उस अभियान में बंदी बना। जिसकी परिणति बाबर के पुत्र एवम्‌ उत्तराधिकारी, हुमायूं, को भारत से निकाल कर हुई। अफूगानों के विनाश के लिए उत्तरदायी बताकर शेरशाह उसे तुरन्त मारना चाहता था परन्तु अफृगान सरदारों के अनुरोध पर उसे बन्दीगृह में डाल दिया गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।

-डॉ० ज्ञानेश्वर खुराना