पानीपत की दूसरी लड़ाई के नायक : सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य
निःसंदेह हेमू अथवा सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य दिल्ली के सिंहासन पर बैठे अंतिम हिन्दू सम्राट थे । उन्होंने अति साधारण परिवार में जन्म लेकर भारत कौ स्वतंत्रता के लिए शानदार कार्य किया था । उन्होंने भारत को एक शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए अत्यंत साहसी तथा पराक्रमपूर्ण विजय प्राप्त की थी। सम्राट हेमचन्द्र वह महान न्यायशील थे जिन्होंने भारत का भविष्य बदलने के लिए मृत्युपर्यत भरसक प्रयत्न किए।
वे एक प्रतिभाशाली शासक, एक सफल सेनानायक, एक चतुर राजनीतिज्ञ तथा दूर-द्रष्ट कूटनीतिज्ञ थे । समस्त पठानों तथा तत्कालीन मुगल शासकों – बाबर तथा हुमायूं के काल तक, एक भी हिन्दू इतने ऊंचे पद पर नहीं पहुंचा था। हेमचन्द्र भारतीय इतिहास में सर्वश्रेष्ठ स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने विदेशी शासन के विरुद्ध देश के लिए अपना बलिदान दिया।
वे अलवर क्षेत्र में राजगढ़ के निकट माछेरी ग्राम में 1501 ई. में जन्मे, धार्मिक संत पूरणदास के पुत्र थे, जो बाद में वृंदावन जाकर वल्लभ सम्प्रदाय के संत हरिवंश से जुड़ गए थे। उनका परिवार सुन्दर भविष्य की कामना से रिवाडी आ गया था तथा वहीं हेमचन्द्र ने शिक्षा प्राप्त की थी। शीघ्र ही उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, फारसी तथा अरबी सीख ली थी । साथ ही बचपन से उन्हें कुश्ती तथा घुड्सवारी का शौक था।
उन दिनों ईरान-इराक से दिल्ली के मार्ग पर रिवाड़ी महत्वपूर्ण नगर था। उन्होंने शेरशाह सूरी की सेना को रसद तथा अन्य आवश्यक सामग्री पहुंचानी शुरू कर दी थी तथा बाद में युद्ध में काम आने वाले शोरा भी बेचने लगे थे।
शेरशाह सूरी की मृत्यु 22 मई, 1545 ई. को हुई थी । यह कहा जाता है कि शेरशाह के उत्तराधिकारी इस्लामशाह की नजर रिवाडी में हाथी की सवारी करते हुए, युवा, बलिष्ठ हेमचन्द्र पर पड़ी तथा वे उसे अपने साथ ले गए | उनकी प्रतिभा को देखकर इस्लामशाह ने उन्हें शानाये मण्डी, दरोगा-ए-डाक चौकी तथा प्रमुख सेनापति ही नहीं, बल्कि अपना निकटतम सलाहकार बना दिया । साथ में 1552 ई. में इस्लामशाह की मृत्यु पर उसके 2 वर्षीय पुत्र फिरोज खां को शासक बनाया गया, परन्तु तीन दिन के बाद आदिलशाह सूरी ने उसकी हत्या कर दी। नए शासक का मूलतः नाम मुवरेज खां या.मुबारकशाह था, जिसने ‘आदिलशाह ‘ की उपाधि धारण की थी। आदिलशाह एक विलासी, शराबी तथा निर्बल शासक था।
उसके काल में चारों ओर भयंकर विद्रोह हुए। आदिलशाह ने व्यावहारिक रूप से हेमचन्द्र को शासन की समस्त जिम्मेदारी सौंपकर, प्रधानमंत्री तथा अफगान सेना का मुख्य सेनापति बना दिया।
अधिकतकर अफगान शिविरों ने भी आदिलशाह के खिलाफ विद्रोह कर दिए थे। हेमचन्द्र ने अद्भुत शौर्य तथा वीरता का परिचय देते हुए एक-एक करके उनके विरुद्ध 22 युद्ध लड़े तथा सभी में महान सफलताएं प्राप्त की थी।
यह भारत के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ था, जहां हेमचन्द्र के कट्टर विरोधी अकबर के प्रसिद्ध चाटुकार अबुल फजूल तथा तत्कालीन इतिहासकार बदायूं ने उनके जीवन तथा व्यक्तित्व के सन्दर्भ में एक से बढ़कर एक अपमानजनक टिप्पणियां कीं, हां दोनों ने हेमचन्द्र की सैनिक प्रतिभा तथा विजयों की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की । उसने एक-एक करके आदिलशाह के सभी शत्रुओं को पराजित कर दिया।
1556 ई. में जब बाबर का ज्येष्ठ पुत्र हुमायूं पुनः भारत लौटा तथा उसने खोये साम्राज्य पर अधिकार करना चाहा। आदिलशाह स्वयं तो चुनार भाग गया, और हेमचन्द्र को हुमायूं से लड़ने के लिए भेज दिया। इसी बीच 26 जनवरी, 1556 ई. को अफीमची हुमायूं की, जो जीवन भर इधर-उधर भटकता तथा लुढ़कता रहा, सीढ़ियों से लुढ़क कर कर मौत हो गई।
हेमचन्द्र ने इस स्वर्णिम अवसर को न जाने दिया। उसने भारत में स्वदेशी राज्य की स्थापना के लिए अकबर की सेनाओ को आस-पास के क्षेत्रों से भगा दिया। हेमचन्द्र ने सेना को संगठित कर, ग्वालियर से आगरा की ओर प्रस्थान किया। उसकी विजयी सेनाओं ने आगरा के मुगल गवर्नर इस्केन्द्र खां उजबेग को पराजित किया। हेमचन्द्र ने अपार धनराशि के साथ आगरा पर कब्जा किया। और वह विशाल सेना के साथ अब दिल्ली की ओर बढ़ा। दिल्ली का मुगल गवर्नर तारीफ बेग खां अत्यधिक घबरा गया तथा भावी सम्राट अकबर तथा बैरमखां से एक विशाल सेना तुरन्त भेजने का आग्रह किया। बैरमखां की सेना , जो पंजाब के गुरुदासपुर के निकट कलानौर में डेरा डाले पड़ी थी। बैरमखां ने तुरन्त अपने योग्यतम सेनापति पीर मोहम्मद शेरवानी के नेतृत्व में एक विशाल सेना देकर भेजा। भारतीय इतिहास का एक महान निर्णायक युद्ध 6 अक्तूबर, 1556 ई. तुगलकाबाद में हुआ जिसमें मुगलों की भारत विजय हुई। लगभग 3000 मुगल सैनिक मारे गए।
आखिर 7 अक्तूबर, 1556 को भारतीय इतिहास का वह विजय दिवस आया जब दिल्ली के सिंहासन पर सैकड़ों वर्षों की गुलामी तथा अधीनता के बाद हिन्दू साम्राज्य की स्थापना हुई। विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आर.सी. मजूमदार ने इसे भारत के इतिहास के मुस्लिम शासन की अद्वितीय घटना बताया। वस्तुतः यह महान घटना, समूचे एशिया में दिल दहलाने वाली थी। आश्चर्य तो यह है कि मुस्लिम चाटुकार, दरबारी इतिहासकारों तथा लेखकों से न्योयाचित प्रशंसा की अपेक्षा तो नहीं थी, बल्कि विश्व में निष्पक्षता तथा नैतिकता का ढोल पीटने वाले, किसी भी ब्रिटिश इतिहासकार ने हेमचन्द्र की वीरता एवं शौर्य के बारे में एक भी शब्द नहीं लिखा। संभवत: इससे उनका भारत पर राज करने का भावी स्वप्न पूरा न होता। वस्तुतः यह किसी भी भारतीय के लिए, जो भारतभूमि को पुण्यभूमि मातृभूमि मानता हो, अत्यंत गौरव का दिवस था।
हेमचन्द्र का राज्याभिषेक भी भारतीय इतिहास की अद्वितीय घटना थी। भारत के प्राचीन गौरवमय इतिहास से परिपूर्ण पुराने किले (पांडवों के किले) में हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार राज्याभिषेक था। अफगान तथा राजपूत सेना को सुसज्जित किया गया। सिंहासन पर एक सुन्दर छतरी लगाई गई। हेमचन्द्र ने भारत के शन्नुओं पर विजय के रूप में ‘शकारि’ विजेता की भांति “विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की । नए सिक्के गढ़े गए। राज्याभिषेक की सर्वोच्च विशेषता संम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य की घोषणाएं थीं जो आज भी किसी भी प्रबुद्ध शासक के लिए मर्गदर्शक हो सकती हैं।
सम्राट ने पहली घोषणा की, कि भविष्य में गोहत्या पर प्रतिबंध होगा तथा आज्ञा न मानने वाले का सिर काट लिया जाएगा। सम्भवतः यह समूचे पठानों, मुगलों, अंग्रेजों तथा भारत की स्वतंत्रता के बाद तक की दृष्टि से पहली घोषणा थी । यदि हम समस्त मुगल काल को देखें तो केवल 857 के महासमर के समय बहादुरशाह जफर से तीन बार यह घोषणा जबरदस्ती करवाई गई थी। तथा इसका पालन एक बार भी न हुआ। देश की स्वतंत्रता के पश्चातू डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने ऐसे 3000 पत्रों व तारों को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को भेजते हुए आग्रह किया था कि भारत का पहला कानून 5 अगस्त, 947 को गोहत्या बन्दी के बारे में होना चाहिए। तत्कालीन प्रकाशित पत्र-व्यवहार से ज्ञात होता है कि मिश्रित संस्कृति का ढोंग पीटते हुए पं. नेहरू ने इसे अस्वीकार कर दिया था।
सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य की दूसरी घोषणा भ्रष्टाचारी कर्मचारियों को तुरन्त हटाने की थी। वे जानते थे कि भ्रष्टाचार को मौका देकर महान गलती होगी। एक अन्य घोषणा में सम्राट ने देश में तुरन्त व्यापार वाणिज्य में सुधारों की घोषणा।
इस भांति अनेक राजपूतों की महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति की घोषणा की। जहां दिल्ली में यह विजय दिवस था, वहां बैरमखां के खेमे में यह शोक दिवस था। आगरा, दिल्ली सम्भलपुर तथा अन्य स्थानों के भगोड़े मुगल गवर्नर अपनी पराजित सेनाओं के साथ मुंह लटकाए खड़े थे। अनेक सेनानायकों ने हेमचन्द्र के विरुद्ध लड़ने से मना कर दिया था, वे बार-बार काबुल लौटने की बात कर रहे थे, परन्तु बैरमखां इस घोर पराजय के लिए तैयार न था।
आखिर 5 नवम्बर, 1556 ई. को पानीपत में पुनः हेमचन्द्र व मुगलों की सेनाओं में टकराव हुआ। प्रत्यक्ष-द्रष्टओं का कथन है कि हेमचन्द्र के दाईं और बाईं ओर की सेनाएं विजय के साथ आगे बढ़ रही थीं। केन्द्र में स्वयं सम्राट सेना का संचालन कर रहे थे। परन्तु अचानक आंख में एक तीर लग जाने से, वे बेहोश हो गए। देश का भाग्य पुन: बदला गया।
हेमचन्द्र को बेहोश हालत में ही सिर काट कर मार दिया गया। उनका मुख काबुल भेजा गया तथा शेष धड़ दिल्ली के एक दरवाजे पर लटका दिया गया। उससे भी उनकी जब तसल्ली न हुई उनके पुराने घर माछेरी पर आक्रमण किया गया। लूटमार की गई। उनके 80 वर्षीय पिता पूरनदास को धर्म परिवर्तन के लिए कहा गया। न मानने पर उनका भी कत्ल कर दिया गया।
इस प्रकार सम्राट हेमचन्द्र का 29 दिन तक दिल्ली पर सुशासन का शानदार युग समाप्त हुआ। वस्तुतः सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य भारत के गगन में एक पुच्छल तारे की भांति थे जो चमके, दमके, धधके तथा बिलीन हो गए। उन्होंने तत्कालीन देश की युवा पीढ़ी का भी मार्गदर्शन किया, जिसे रानी दुर्गावती, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी तथा गुरु गोविन्द ने आगे बढ़ाया। आज महत्ती आवश्यकता है कि उस महापुरुष का जीवन भारतीय इतिहास की पाद्य पुस्तकों का अंग बने।
-डॉ० सतीश चन्द्र मित्तल, सहारनपुर